कहानी स्नेहलता और सत्यम की
स्नेहलता एक छोटे से परिवार की गोल मटोल एक ऐसी बच्ची थी जो आस पास रहने वाले सभी की चहेती थी, जहां पिता एक हिंडाल्को रेणुकूट में कर्मचारी हैं और माता एक गृहिणी थीं। बचपन से ही स्नेहलता एक मेधावी छात्रा थी, और प्रकृति से प्रेम उसके अंदर कूट कूट कर भरा था, इंसान तो इंसान जीव जंतुओं के प्रति भी उसका प्रेम इतना अगाध था कि उसकी निश्छलता देख लोग फूले नहीं समाते थे। उसकी छोटी छोटी हरकतें ऐसी थी मानो ईश्वर उसे आदेश दे रहे हों, उसका अपने हिस्से की रोटियां गाय के बच्चे को खिलाना, चिड़ियों के लिए पानी का रखना, कुत्ते के बच्चों के साथ खेलना ऐसी आदतें थीं जो किसी के भी मानस पटल पर छाप छोड़ने के लिए पर्याप्त थीं।
लेकिन दूसरी तरफ स्नेहलता अपने ही घर में अकेली थी, उसका कोई भाई या उसके साथ खेलने वाला या उसके साथ नादानियां करने वाला कोई उसका हम उम्र उस के आस पास नही रहता था, जिसकी वजह से वह हमेशा छुब्ध रहती थी, तथापि उसके अंदर ईश्वर की उपासना करने की ललक हमेशा रहती थी। जिन्होंने उसे बचपन से देखा था उनका कहना है कि स्नेहलता एक ऐसी लड़की है जिसने होश सम्हालने से लेकर 28 वर्ष की अवस्था तक अस्वस्थ होने के बावजूद कभी भी भोलेनाथ के मंदिर में अनुपस्थित नहीं रही, यही कारण था कि वह सभी की प्रिय थी।
समय के साथ स्नेहलता ने अपनी पढ़ाई पूरी की तथा एक योग्य अभ्यर्थी होने के नाते उसने सरकारी स्कूल में शिक्षिका का पद प्राप्त किया वह भी अपने घर के समीप के विद्यालय में, वहां भी स्नेहलता की ख्याति ऐसी फैली की शिक्षा विभाग के उच्च कर्मचारी भी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। उसने अपने विद्यालय के स्तर को इतना ऊंचा उठा दिया कि पूरे प्रदेश में वह विद्यालय विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में प्रथम स्थान पर पहुंच गया। पूरी सत्यनिष्ठा के और कर्मठता से अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करना उसकी आदत में था।
अब बात करते हैं सत्यम की जिसने अपने जीवन में बहुत संघर्ष से अपनी पढ़ाई पूरी की तथा एक सरकारी बैंक में चयनित हुआ।
स्नेहलता और सत्यम की पहली मुलाकात खाता खुलाने के संबध में बैंक परिसर में हुई थी, जब स्नेहलता ने पहली बार सत्यम को देखा था तो वह अपने कार्य में इतना व्यस्त था की स्नेहलता, जिसकी खूबसूरती के सब कायल थे उसको एक निगाह भी उठा के नही देख रहा था। और स्नेहलता का जो भी काम था उसने त्वरित रूप से कर दिया, वह भी अपना कार्य पूरी जिम्मेदारी और सत्यनिष्ठा के साथ करता था। उस पहली मुलाकात के बाद स्नेहलता का शाखा में आवागमन बढ़ गया और वह किसी न किसी बहाने शाखा में बस सत्यम को देखने आया करती थी, सभी को यह आभास हो चुका था की स्नेहलता, सत्यम के प्रति आकर्षित है, किंतु सत्यम को इसका तनिक भी भान नहीं था। वह स्नेहलता को सिर्फ एक सामान्य ग्राहक की तरह ही देखता था। किंतु दोनो में समय बीतने के साथ मित्रता हो गई, फिर एक दिन अचानक स्नेहलता को सत्यम के निजी जिंदगी के बारे में यह पता चला कि सत्यम शादी शुदा है और उसका एक प्यारा बेटा है। स्नेहलता अपने मन के उद्गार को प्रकट करने ही वाली थी लेकिन सत्य जान कर उसने अपने अधरों को चुप रखा।
समय बीतता गया किंतु स्नेहलता अपने मन से सत्यम को नही निकाल पा रही थी और निकले भी कैसे सत्यम भी जैसे उसकी हर समस्या का समाधान जो बन गया था, हर छोटी से छोटी और बड़ी बाते साझा होती थी दोनो के बीच। फिर वो दिन आया जब स्नेहलता का विवाह उसके माता पिता द्वारा तय कर दिया गया, स्नेहलता ने भरी मन से सत्यम को विवाह में आमंत्रित किया किंतु संयोग ही था की उस दिन सत्यम की इकलौती बहन की शादी थी जिसे सत्यम ने पिता के ना रहने पर पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाया। स्नेहलता ससुराल जा चुकी थी और इधर सत्यम का भी स्थानांतरण हो चुका था। स्नेहलता अपनी शादी और ससुराल को लेकर बहुत उत्सुक थी कितने ही ख्वाब बुने थे उसने लेकिन भाग्य का खेल देखिए जितनी भी बाते उसके ससुराल वालों ने कही थी या जताई थी वो सब बाते निराधार निकली,और तो और उसके साथ ऐसा व्यवहार किया कि वह अवसाद ग्रस्त हो गई । इधर सत्यम के जीवन में भी तूफान आ चुका था उसका परिवार टूट चुका था उसकी पत्नी उसके सारे गहने जेवर और जमा पूंजी लेके अपने बेटे सहित छोड़ के जा चुकी थी उन दोनो का संबंध विच्छेद हो चुके थे।
स्नेहलता अपने ऊपर होने वाली यातनाओं को किसी से कह भी नहीं पाती थी, उसके ससुराल में सब उसे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझते तो थे किंतु बरताव दासी की तरह करते थे। इधर सत्यम इतना टूट चुका था की नशे के सहारे अपना जीवन करने लगा था, तभी अचानक एक दिन स्नेहलता का फोन आया, सत्यम कार्यस्थल से घर जा रहा था, सहसा उसकी आंखो में एक चमक सी दिखने लगी, फिर दोनों ने अपना कुशल क्षेम एक दूसरे को बताया, अपनी आप बीती सुनाई, दोनों ही ये सोचते थे कि, अपने जीवन में सुखी हैं, इसलिए कहीं एक दूसरे की वजह से कहीं किसी की खुशियों में नजर ना लग जाए। वार्तालाप का समय खत्म हुआ, स्नेहलता को कोई जरूरी काम करना था, इस रात दोनों की नींद उड़ चुकी थी। इधर सत्यम करवटें बदल रहा था.. उधर स्नेहलता बेचैन थी…
सत्यम का अकेलापन और स्नेहलता पर अत्याचार दोनों को एक दूसरे के करीब लाते जा रहे थे। अब वो समय आ चुका था की स्नेहलता अपना पत्नी धर्म निभा रही थी लेकिन मन में उसके पति के लिए कोई जगह नहीं थी क्योंकि उनके बरताव में कोई बदलाव नहीं आ रहा था। इधर सत्यम भी स्नेहलता को समझा रहा था की रिश्ते को मौका दो समय के साथ सब ठीक हो जायेगा, किंतु स्नेहलता का पति अत्यधिक चतुर था, उसने स्नेहलता की ऐसी हालत कर दी थी कि उसके सारे बचत और सारे निवेश पर उसके पति ने अधिपत्य जमा रखा था, जो महिला इतनी प्रतिष्ठित थी उसको बेबस कर दिया गया था।
न जाने कितनी बार स्नेहलता के मन में ये ख्याल आया कि अपने पति से अलग हो जाए, किंतु माता पिता रिश्तेदारों समाज की तरफ देखते हुए उसने अपने कदम पीछे हटा लिए। अवसाद की बढ़ती गति ने उसे आत्महत्या की तरफ 3 बार धकेला किंतु ईश्वर ने उसे किसी न किसी रूप में आ के बचा लिया, जब ये सब घटनाएं सत्यम को पता चला तो खुद को रोक नहीं पाया और स्नेहलता से मिलने चला गया और दोनों ने एक दूसरे से साथ न छोड़ना का वादा किया और एकदूसरे को स्वीकार किया, और स्नेहलता ने अपना जीवन सत्यम के साथ बिताने का निर्णय लिया, उसने अपने माता पिता से सारी बातें कह डाली। मन के सारे गुबार को सामने रख दिया और सबकी सहमति से स्नेहलता अपने पति से अलग होकर सत्यम के साथ खुशी खुशी अपना जीवन बिताने लगी, सत्यम भी उसे वो सारी खुशियां देता था जिसकी वह हकदार थी।
इस कहानी से प्रश्न यह उठता है ..
स्नेहलता ने कभी भी जाने अंजाने किसी का बुरा नहीं किया फिर भी उसके साथ इतनी निर्ममता क्यों हुआ?
सत्यम ने बचपन से ही संघर्ष किया और अपनी पत्नी को भी पढ़ाया लिखाया फिर उसके साथ ऐसा क्यों हुआ?
सत्यम की पत्नी या स्नेहलता के पति उन दोनों ने अपने साथी को क्यों नहीं समझा?
बात करते है स्नेहलता की,
कुछ लोगो की दृष्टि में यह नियति थी, अथवा पिछले जन्म के कर्मों का फल। मनुष्य के जीवन में विभिन्न प्रकार के कष्ट आते रहते है किंतु मनुष्य का कर्तव्य पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करना तथा ईश्वर में अपनी निष्ठा को बनाए रखना है। यह नहीं कि परिस्थितियों के वशीभूत होकर ईश्वर और अपने भाग्य को कोसना तथा निराशा के गर्त में चले जाना, जीवन के महत्व को सीखते हुए स्नेहलता ने समाज, परिवार, से ऊपर उठ कर जो भी निर्णय लिया वह अनुकूल था, अन्याय सहते हुए अगर वह जीवन व्यतीत करती तो यह कदाचिद अनुचित ही होता।
रही बात सत्यम की उसने भी स्त्री को सम्मान देते हुए अपने कर्तव्य का निर्वहन किया जिससे समाज या भद्रजन उसे अपराधी इंगित नहीं कर सकते कि वह स्त्री के विकास में बाधक बना।
सत्यम की पत्नी और स्नेहलता के पति का चरित्र ऐसा था जिसमे एक धनलोलूप तो दूसरी के लिए निज स्वार्थ ही सर्वोपरि था।
हम अपने आस पास के समाज में इस तरह के बहुतायत उदाहरण देखते हैं जिसमे, मनुष्य किसी के लिए कितना भी कुछ कर ले उसकी प्रवृत्ति को परिवर्तित नहीं कर सकता किंतु अपने विवेक का प्रयोग करके यह निश्चित कर सकता है कि उसे किसके प्रति कैसा व्यवहार करना है।
इसलिए संयम से रहते हुए संभवतः यह प्रयास करना चाहिए कि आपके मन, कर्म, वचन से किसी को संताप न मिले और कोई भी व्यक्ति अथवा रिश्ता आपके सत्यनिष्ठा के मूल्य को ना समझे तो उसे अवसर अवश्य दे किन्तु अपने जीवन को एक भार की तरह ना व्यतीत करते हुए उस रिश्ते या बंधन से मुक्त होना ही श्रेयष्कर है।
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