top of page
Writer's pictureअंजान (कृष्ण कांत त्रिपाठी)

हिन्दुस्तान और हिन्दी



निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल।।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जब उपर्युक्त पंक्ति को अपने कविता 'मातृभाषा के प्रति' में लिखे होंगे, तो अवश्य ही उस वक़्त वो अपनी भाषा की दुर्दशा पर चिंतित रहे होंगे। ऐसा होना लाज़मी भी है क्योंकि वो गुलामी का दौर था, उस दौर में सब कुछ हम पर थोपा जा रहा था, हमें मजबुर किया जा रहा था उनकी संस्कृति और भाषा को स्वीकार करें। वह दौर था जब अंग्रेजी जानने वाला ही ज्ञाता होता था, बिना इसकी जानकारी के अज्ञानी के श्रेणी में रखा जाता था। उस दौर में मातृभाषा के प्रति जागरूक करना बहुत आवश्यक था। अतः भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कलम की मर्यादा रखा और भाषा के प्रति प्रेम का अलख लोगों के मन में जगाया।


'मातृभाषा के प्रति' कविता को लिखे लगभग डेढ़ सौ साल से ज्यादा वक़्त गुज़र चुका है, इसी बीच हम स्वतंत्र भी हो गए हैं। हमारी स्वतंत्रता को भी चौहत्तर साल हो गए हैं, परन्तु आज भी उनके द्वारा लिखी गई यह पंक्ति उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस वक़्त थी। मैंने जब से होश संभाला है तब से देख रहा हूं कि हिन्दी दिवस के दिन यह पंक्ति सबसे ज्यादा उपयोग की जाती है, यानी कि निज भाषा ज्ञान के प्रति लोगों को प्रेरित किया जाता है।


अब प्रश्न यह है कि जब स्वतंत्रता प्राप्ति के, पचहत्तर वर्षों बाद भी यदि निज भाषा के प्रति लोगों को जागरूकता कि आवश्यकता है तो फिर हम यह कैसे स्वीकार करें कि पूर्णतः स्वतंत्र हो चुके हैं? जब आज भी कुछ लोगों द्वारा योग्यता निर्धारण का पैमाना अंग्रेजी को समझा जाता हो, फिर हम किस आधार पर खुद को स्वतंत्र कह सकते हैं? जब आज भी बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में भेंजकर अंग्रेजी में चन्द पंक्तियां सुनकर ही परिजन अपने बच्चों पर गर्व महसूस कर रहे हैं तो हम स्वतंत्र कैसे हैं? जब आज भी हिन्दी पढ़ने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता हो तब फिर हम स्वतंत्र कहां हैं??


यह तमाम सवाल हैं जो सोचने पर मजबुर करते हैं कि क्या हम सच में स्वतंत्र हो चुके हैं? और जब हम इन सवालों का जवाब ढूंढते हैं तो पाते हैं कि नहीं, कहीं न कहीं आज भी हम मानसिक तौर पर गुलाम ही हैं। हम गुलाम हैं उनके पदचिन्हों का, हम गुलाम हैं उनके द्वारा फैलाए गए अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ होने के भ्रम का, हम गुलाम हैं उनके सभ्यता और संस्कृति का जिसका परिणाम है कि आजादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी निज भाषा उन्नति हेतु लोगों को जागरूक करने की जरूरत पड़ रहा है।


कहीं न कहीं हमें आज़ादी का चोला तो पहना दिया गया परन्तु हमारी भाषायी आज़ादी हमसे छीन गई, जिसका नतीजा यह है कि हम स्वतंत्र होते हुए भी आज भाषा के मसले पर परतंत्र हैं, और "किसी भी राष्ट्र का सबसे बड़ा हार है अपने भाषा के प्रति राष्ट्र का सम्मान ख़तम हो जाना", जो कि वर्तमान समय में हम आसानीपूर्वक देख सकते हैं। बच्चों का अंग्रेजी पढ़ना आवश्यक है क्योंकि वह एक भाषा है और बहुभाषी होना बुद्धिमता का प्रतीक है, परन्तु निज भाषा की तवहिनी करके प्राप्त अन्य हज़ारों भाषाओं का ज्ञान भी कभी पूर्ण नहीं हो सकता है। अतः आवश्यक है कि हम अन्य भाषाओं की तरह निज भाषा को भी गर्व के साथ पढ़ें और जानें।।


लेखक

©कृष्ण कांत त्रिपाठी

इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ें -



60 views0 comments

Recent Posts

See All

Commentaires


Subscribe For Latest Updates

Thanks for subscribing!

bottom of page